Wednesday, October 19, 2011

सुपर एजेंट इन चीन


एक लड़का और लड़की कहीं मिले और यहाँ से शुरू हुई दोस्ती की नई कहानी। मिलने का सिलसिला रहा जारी और दोस्ती बदल गई प्यार में। ली कसमें, निभाएँगे वादा, एक-दूसरे का साथ कभी न छोड़ेंगे। जन्म-जन्म का साथ हमारा न होंगे जुदा। और अगले ही पल फोन की घंटी बजती है और सामने से आवाज़ आती है- कहिए, हम आपके जोड़ीदार से छुटकारा पाने में आपकी मदद कैसे कर सकते हैं।
आप ऊपर लिखे वाक्यों को फिर से पढ़ रहे होंगे और सोच रहे होंगे कि मैंने शायद कहीं गलत लिख दिया है। जी नहीं, मैं आपके साथ आजकल चीन में होने वाले इंस्टेंट प्यार के इंस्टेंट साइड इफेक्टस शेयर करना चाहती हूँ। तो भई चीन की ताज़ा खबर यह है कि सारी दुनिया को मेड इन चाइना के उत्पादों से सराबोर करने वाले इस महान देश में बनी मेड इन चाइना लव स्टोरीस ने संबंधों के खत्म होने के कारण होने वाले दर्द से बचने के लिए एक अनोखा तरीका खोज निकाला है। वे अब ब्रेकअप की जिम्मेदारी किसी मिडल मैन यानि मध्यस्त को सौंप रहे हैं। इसका मतलब एक और प्रोफेशन का नया इज़ाद किया है चीन ने- मिडल मैन जो आपको अपने बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड से ब्रेकअप के बाद होने वाले दर्द और गम से बाहर आने में मदद करेंगे। सुनने में, पढ़ने में अटपटा लगता है लेकिन आजकल जहाँ बाज़ार में पैसे देकर आप अपनी पसंद की कोई भी वस्तु खरीद सकते हैं ,वहाँ एक और आपकी सेवा करने के लिए हाजिर है और हाँ, यह सेवा आनलाइन शॉपिंग वेबसाइट पर भी जोड़ियों को अलग करने संबंधी जैसी अपनी योग्यता को बताते हुए मौजूद हैं। तो फिर देर किस बात की बेझिझक किसी से भी दिल लगा बैठिए, दिल से प्रेम कीजिए, किसी का भी दिल चुराइए या अपना चोरी होने दीजिए। तो क्या हुआ अगर किसी ने आपका दिल तोड़ा, अनुभवी एजेंट प्यार करने वालों के बीच दरार पैदा करने के लिए फोन या ईमेल के आम तरीकों द्वारा आपको इस दर्द से निजाद दिलवाएँगे। और वह भी एकदम प्रोफेशनल तरीकों यानि पेशेवर ढंग से वे दोनों पक्षों के बीच गलतफहमियाँ या झगड़ा पैदा करने जैसे तरीके अपनाएँगे। यह गलतफहमियां धीरे-धीरे बढ़ती जाएँगी और अंतत: दोनों पक्ष स्वेच्छा से अलग हो जाएँगे।
इस स्थिति में मुझे एक हिन्दी फिल्म का गीत याद आ रहा है। दिल -- दिल है कोई शीशा तो नहीं इक ठेस लगी और.......................................। जी नहीं, नहीं टूटेगा चीन में आपका दिल। 

Wednesday, October 12, 2011

क्या तुमने सलाह ली !


आज मैं और मेरी एक चीनी कॉलिग(सहकर्मी) दोपहर का खाना खाने एक रेस्टरॉ गए थे और उसके बाद हम खरीददारी करने एक शॉपिंग मॉल में गए। चलते-चलते हम एक जूलरी शॉप में घुस गए और वहाँ सोने के गहने देखने लगे। मेरी सहकर्मी हाथ में पहनने वाले ब्रेसलेटस देख रही थी और उसे कुछ डिजाइनस पसंद आए तो उन्हें पहन कर ट्राई भी करने लगी।
मुझसे भी पूछा कि तुम भी अपनी राय दो। कुछ देर तक यह ब्रेसलेटस पहनने-उतारने का सिलसिला चलता रहा। मेरी राय भी लेती रही और आइने की भी।
      कुछ देर बाद फैसला ले ही लिया कि भई कौन-सा ब्रेसलेट इनकी कलाई की शोभा बढ़ाने में कामयाब रहा और उसने अपना फैसला मुझे भी सुनाया कि मैं यह खरीदने वाली हूँ। तो मैंने पूछा- अभी या बाद में। उसका जवाब था पसंद अभी आया है तो खरीदूँगी भी अभीठीक है, मरजी तुम्हारी, मैंने कहा। खरीददारी कर हम दोनों निकले दफ्तर जाने के लिए। टैक्सी में बैठ हम इधर-उधर की बातें कर रहे थे, लेकिन मैं इंतज़ार कर रही थी सही मौके का। क्योंक्योंकि मेरे दिमाग में अगर कोई सवाल आता है और मुझे अगर उसका जवाब नहीं मिलता तो मैं बेचैन हो जाती हूँ। ये आदत बचपन से है लेकिन चीन आने के बाद यह आदत तो कुछ ज्यादा ही पक्की हो गई है क्योंकि यहाँ अधिकतर सवालों के जवाबों का अनुमान खुद ही लगाना पड़ता है। और जो हमारी भाषा समझ सकते हैं तो उनसे सवाल पूछने का मैं कोई मौका नहीं जाने देती। खैर, मैं बात कर रही थी अपने सवाल की जो मैंने अपनी चीनी सहकर्मी से पूछा, तुम अपने निजी जीवन में कोई भी फैसला लेने से पहले अपने पति से सलाह लेती हो। उसने कहा, कभी-कभी। मैंने फिर पूछा, कीमती या बड़ी चीज़ खरीदने से पहले अपने पति से सलाह लेती हो। उसने कहा, कभी-कभी। मैंने फिर पूछा, तुमने आज अपने लिए सोने का ब्रेसलेट खरीदा है, तो क्या तुमने सलाह की थी कि तुम अपने लिए जूलरी खरीदना चाहती हो। उसने जवाब दिया, क्यों, इसमें पूछने वाली या सलाह लेने वाली क्या बात हैमेरा मन किया मैंने ले लिया, मेरी अपनी मर्ज़ी है। उसका जवाब सुन मैं शांत हो गई और मैंने उससे काफी देर तक कोई बात नहीं की।
      उसकी बात तो ठीक थी, उसने ऐसी कोई गलत बात भी नहीं की तो फिर मुझे उसकी बात अजीब क्यों लग रही थी। शायद मैं हमेशा सलाह लेती हूँ या मैं ऐसा नहीं कर पाई कभी इस बात का मलाल हो मेरे मन में। ना..........ऐसी तो कोई बात नहीं। मन में सवाल-जवाब चल रहे थे कि सहकर्मी ने बीच में पूछा क्या आप अपने जीवन के सारे फैसले अपने पति से पूछ कर करती हैं? मैं सवाल सुन कुछ सैकेंड तक तो उसे देखती रही, मेरे लिए उसके सवाल के जवाब देने से ज्यादा ज़रूरी था चीन में महिलाओं की सोच, उनके विचारों के बारे में जानना। मैंने कहा पहले तुम बताओ कि तुम्हारे निजी जीवन में पति की सलाह लेना न लेना कितने मायने रखता है। तो उसका जवाब था- हम दोनों की पहचान अलग-अलग है। हम दोनों एक-दूसरे से सलाह तभी लेते हैं जब हमें साथ मिलकर कोई बड़ा फैसला करना होता है। जैसे कि मिलकर मकान खरीदना या कार खरीदना। उसके अलावा हम ज्यादातर अपनी मन-मर्जी ही करते हैं। बस इतना ही...............मेरी आवाज़ में हैरानी, परेशानी और न जाने क्या-क्या था। अब आप बताओ उसने कहा।
      मैंने मुस्कुराते हुए कहा, मैं तो शायद सारे काम अपने पति से सलाह लेकर ही करती हूँ। उसके चेहरे पर भी वही भाव दिख रहे थे जो कुछ देर पहले मेरे चेहरे पर थे। शायद इसे ही तो अंग्रेज़ी में cultural difference कहते हैं। मेरी सहकर्मी के अनुसार महिलाओं के आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने से महिलाओं को वो सारे अधिकार मिल जाते हैं जिससे वे आज़ाद हैं अपना जीवन अपनी मर्जी से जीने के लिए। लेकिन अगर हम भारतीय महिलाओं की बात करें जो आर्थिक रूप से स्वतंत्र तो हैं लेकिन उनकी नज़र में आज भी पति से सलाह लेना या उस पर आश्रित रहना उनके व्यक्तित्व का हिस्सा है। इसे हम अपनी संस्कृति का जामा पहना सकते हैं। क्योंकि अधिकतर ऐसा, कुछ महिलाएँ अपनी मर्जी से करती हैं और कुछ मज़बूरी से तो कुछ कहेंगी कि, परिवार का क्या मतलब अगर सब अपनी मर्जी करें। खैर, यहाँ मर्जी किसकी और किसकी नहीं यह मायने नहीं रखती जितना कि यह जानना कि धरती के इस कोने में महिलाओं की पहचान और व्यक्तित्व केवल और केवल अपना है। वे जितना बेहतर दूसरों के लिए जीना जानती हैं उतना ही अपने लिए भी। त्याग और समझौते केवल इनके खाते में बढ़ते हुए नहीं दिखते यहाँ। क्या हम कुछ अजीब हैं या ये। इस सवाल का जवाब अब भी बाकी है। टैक्सी से उतर हम चल पड़े दफ्तर की ओर।

Tuesday, August 30, 2011

उफ!ये फैशन



ये दुनिया रंग-बिरंगी, इस दुनिया के रंग-ढंग निराले। अब अगर हम फैशन की बात करें तो नित-नए कपड़े, गहने, जूते, बैग और न जाने क्या-क्या लाया जा रहा है, बाज़ारों में आजकल। यहाँ चीन में तो हर जगह चलते-चलते ऐसे-ऐसे फैशन के रंग में लबालब लोग मिलते हैं कि बस क्या कहना। अब कल की बात लिजिए मैं ऑफिस से घर ट्रेन से जा रही थी। सीट न मिलने के कारण खड़ी हुई थी और सामने आकर खड़े हुए कुछ युवा लड़के-लड़कियाँ। मैंने उन्हें देखा और बस देखती ही रही कारण था उनका चश्मा। अब चश्मे में क्या खास हो सकता है। चश्मे का फ्रेम और क्या। जी नहीं, खास बात यह थी कि चश्मा था, फ्रेम था लेकिन कांच (लैंस) नहीं दिख रहा था। पहले तो लगा शायद टूट गया है लेकिन चारों लोगों का एक साथ चश्मे का फ्रेम टूट जाए ये बात अटपटी लग रही थी और टूटे हुए लैंस का फ्रेम पर कोई नामोनिशान न हो यह भी अजीब बात लग रही थी। बहुत देर तक मैं उन्हें देख रही थी, उनका ध्यान भी रुक-रुककर मेरी तरफ जा रहा था कि भई मैं इतना ध्यान से उनके चेहरे की तरफ क्यों देख रही हूँ क्योंकि मुझे लग रहा था कि कांच तो ज़रुर होगा लेकिन मैं उसे देख नहीं पा रही हूँ। मेरी जिज्ञासा शांत नहीं हो रही थी और रह-रहकर मैं उनसे बात भी करना चाह रही थी लेकिन हिचकिचा रही थी। अब आदत से मज़बूर जब तक दिमाग में चल रहे प्रश्न का संतोषजनक उत्तर ना मिले तब तक चैन नहीं मिलता। कि भई, ये क्या अजब-गजब फैशन है, चश्मा तो पहनना है मगर बिना कांच के, लैंस के। बिना नंबर का चश्मा तो पता था, ये नई चीज़ आज पता चली। अभी मन में ये सब चल रहा था कि उन चारों में से एक ने अपनी आँख खुजलाई वो भी फ्रेम के आगे के हिस्से से उँगली डालकर। अरे, ये तो कन्फ्रम हो गया कि फ्रेम बिना लैंस के है। यह देख मैं मुस्कुराने लगी और मुझे देख उन्होंने भी स्माइल पास की। हममम.......ये अच्छा मौका है बातचीत शुरु करने का। मैंने कहा मुझे आप सबके चश्मे बहुत अच्छे लग रहे हैं, ये बिना लैंस के कहाँ से लिए आपने ?’उन्होंने बाज़ार का नाम बताया और मैंने अपने दिल की बात उडेलने में देर किए बिना पूछ ही डाला ये ऐसे चश्मों में क्या खास है। तो उनका जवाब था- इटस इन थिंग नाओ अ डेयस। ऐसे चश्मे आपको फंकी लूक, कूल डूड बनाते हैं और आप जो चाहे, जैसा फ्रेम चाहे पहन सकते है साथ-साथ लैंस बनवाने के झंझट से भी बच जाते हैं। सब से अच्छी बात इसे वो लोग भी पहन सकते हैं जिनकी आँखें फिलहाल ऊपर वाले की कृपा से ठीक-ठाक हैं। अब ये सुन कौन नहीं कहेगा, वाह रे फैशन। तेरे नाम से क्या-क्या गजब नहीं ढाहे हमने। और कोई उनसे भी पूछे जिनकी आँखें चश्मे पर निर्भर  रहती हैं। 

Friday, August 19, 2011

केवल यादें रह जाती हैं


मुझे आज भी वह दिन याद है जब मेरी दादी जी को उनकी किसी पुराने मुहल्ले की पड़ोसन का फोन आया था। उस समय मैं शायद प्राथमिक विद्यालय में पढ़ती थी और घर में फोन कनेक्शन को लगे भी लम्बा अरसा नहीं हुआ था। दादी के चेहरे पर खिली मुस्कान, आवाज़ में भारीपन और आत्मीयता को मैंने देखा, सुना लेकिन उसके मायने या उसका सही अर्थ अब समझ आ रहा है। हमममम..........यह बात इतनी पुरानी है लेकिन मुझे आज भी याद है।
      समय बीता और लाया अपने साथ कई बदलाव। हम बड़े हुए स्कूल से कॉलेज और फिर हुई शादी। इस दौरान कितने लोग पीछे छूटे तो कितने नए लोगों से हुई पहचान। अपना संसार बसाने में व्यस्त, घर और काम में व्यस्त, समय यूँ ही बीतता गया। हम भी समय और दुनिया के साथ-साथ तालमेल बैठाने का प्रयास करने लगे।  
      तकनीकी क्षेत्र की बात करें तो दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई और घूम-फिर के यही समझ आया कि दुनिया गोल है। कुछ साल पहले संचार और तकनीक के क्षेत्र में आई क्रांति जिसने सारी दुनिया को बदल दिया। कोई भी इससे अछूता नहीं रहा। किसी समय में पूरे मुहल्ले के एक घर में फोन होता था, अब हर किसी के हाथ में मोबाइल है, किसी को ई-मेल भेजने के लिए साइबर-कैफे ढ़ूँढ़ना पड़ता था तो अब अधिकतर घरों में कम्प्यूटर है। खैर, मैं इसके बारे में अधिक टीका-टिप्पणी नहीं करुँगी।
      हाँ, एक और वरदान प्राप्त हुआ तकनीकी क्रांति से हमें --- फेसबुक। मुझे याद है कुछ साल पहले जब फेसबुक लोगों के दिलो-दिमाग पर कब्जा करने के लिए मैदान में उतर चुका था, मेरी एक सहकर्मी ने कहा कि क्यों नहीं तुम इस पर अपना खाता खोलती। मैंने भी स्वयं को अपडेट रखने की खुमारी में फेसबुक पर खाता खोल दिया था। अब अपने लिए मित्रों-सहेलियों को ढ़ूँढ़ू फेसबुक पर ? ? यह बात मुझे कुछ अटपटी-सी लगती थी। क्योंकि मेरे विचार में तो दोस्त-सहेलियाँ खोजने से नहीं मिलते वे तो यूँ ही बन जाते हैं, जिनसे दिल मिलें-विचार मिलें। खैर, सहकर्मी की बदौलत कुछ अन्य सहकर्मियों, सहेलियों के साथ फेसबुक पर भी दोस्ती हुई। लेकिन मेरे फेसबुक का खाता कई महीनों-हफ्तों तक अनछुआ रहता था शायद उसमें बैंक के खाते जितना आकर्षण नहीं था। और एक कारण था कि भई जिन्हें मैं फेस-टू-फेस मिलती हूँ, देखती हूँ तो फेसबुक पर उसका कोई खास आकर्षण नहीं। भूले भटके जब कभी मैं फेसबुक पर जाती तो लोगों के फेसबुक-स्टेटस को देख हैरानी होती जैसे कि एक सहेली ने लिखा --- आजकल मैं केवल पति के चेकबुक और बच्चे की नोटबुक पर ही ध्यान देती हूँ, दोस्तों मेरी मानो तो तुम भी ऐसा ही करो और नीचे थे फोटो थाइलैंड में बिताईं छुट्टियों के। फेसबुक पर उपदेश के साथ-साथ प्रिय सहेली के फोटो देख मैंने तो यही निष्कर्ष निकाला कि जिनके पास अतिरिक्त समय है वे लोग इस पर सक्रिय हैं। वैसे आप में से कुछ लोगों को मैंने अबतक नाराज़ जरुर कर दिया होगा।
      लेकिन समय के साथ-साथ फेसबुक प्रचलित होता गया।   जिसे देखो वो फेसबुक की चर्चा करता। मैं इसके मोह-जाल में अभी तक नहीं फंसी थी। लेकिन एक बार किसी रिश्तेदार की सगाई हुई और हम उसमें शरीक नहीं हो सके तो बताया गया कि फेसबुक पर तुम उनके फोटो देख सकती हो। तो इस वाकये से मेरा फेसबुक के साथ हुआ परिचय दूसरी बार। बाइ गाड, कहीं कोई समारोह, शादी-पार्टी, मुंडन-जन्मदिन, होली-दीवाली फोटो खींचों और डाल दो फेसबुक पर ये देख मुझे अचरज भी हुआ और खुशी भी। अपने बहुत सारे रिश्तेदारों को कई सालों बाद देखने का मौका मिला फोटो में। लेकिन मेरे विचार अब भी बदले नहीं थे। मैं मुश्किल से साल में एक या दो बार ही खाता खोलती थी। ब्याज़ नहीं मिल रहा था शायद..............हाहाहाहाहाहा...........................
      लम्बे अरसे के बाद एक परिचित का मेल आया कि फेसबुक पर उन्होंने आपको निमंत्रण भेजा है। अरे, उनका नाम पढ़कर तो मैं बरसों पहले छोड़े हुए अपने पुराने मुहल्ले में पहुँच गई, अपने बचपन में। दरअसल वे मेरे पुराने पड़ोसी थे और हम एक ही स्कूल में पढ़ते भी थे। फेसबुक पर एक-दूसरे का, परिवार का हालचाल जाना, मिलकर बचपन के खेल, पुरानी यादें ताजा़ कीं, फिर अन्य मुहल्ले वालों के बारे में पूछा। उनसे ज्ञात हुआ कुछ और पुराने मुहल्ले के लोगों के बारे में और यहाँ से मिला लिंक स्कूल का, सहपाठियों का, अध्यापक-अध्यापिकाओं का, कॉलेज का, प्रोफेसर का.......................लिस्ट बहुत लम्बी है। यहाँ तक की वो भी मिल गए जिन्हें केवल अपने बचपन में देखा था और दुनिया की भीड़ में हमसे दूर हुए दशकों बीत गए।
क्या बताऊँ आपसे एक को खोजने चली तो पाया सारा कुम्बा यहाँ बैठा था। बस फिर तो क्या लग गई लत फेसबुक की। यहाँ मुझे मेरे बचपन के मित्र मिले, जो अब मेरी तरह बड़े और मोटे हो गए हैं। ये कहना ज़रूरी है क्योंकि इससे आत्मा को अजीब-सी शांति मिलती है। सब एक-दूसरे के फोटो देख पहला वाक्य यही लिखते हैं- अरे, कितनी बदल गई हो और केवल खाते-पीते घर में गई हो। फेसबुक के जरिए उनके साथ पुरानी यादें ताजा कीं। कौन कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं, किस व्यवसाय में हैं....................जैसे कई सवालों की एक साथ बौछार कर देते हैं। बचपन की मीठी-मीठी यादों में, मन बरसों पीछे चला गया। मिलकर पुराने वक्त को याद करना। आज के वक्त की शिकायत करना, सबको अपनी पड़ी है। भाग रहे हैं सब। चारों ओर भागमभाग मची है। कोई भरोसा नहीं करता अब एक दूसरे पर। अधिकतर सहपाठी और मित्र विदेश में बस गए हैं। वहाँ का जीवन कैसा है, कब से हो वहाँ पर इत्यादि-इत्यादि के बाद अब तो सब इंतज़ार कर रहे हैं कि भारत में रियुनियन(सम्मिलन) समारोह आयोजित किया जाए।
      अब पछतावा होने लगा है कि मैं फेसबुक के जादू से इतना समय क्यों दूर रही। प्रतिदिन एक बार यदि फेसबुक पर मित्रों-रिश्तेदारों के संदेश न पढ़ूँ या उन्हें न देख लूँ तो लगता है, दिनचर्या में कुछ अधूरा रह गया है। दूर-दराज बसे अपने रिश्तेदारों के करीब आने का मौका फेसबुक ने दिया।
      बरसों से बिछड़े अपनों से दुबारा मिल मेरा मतलब फेसबुक पर, पुराने, बीते हुए सुनहरे दिनों को एक बार फिर यादों में जीकर जो सुकून मिला, बरसों पहले याद आया दादी के चेहरे पर खिली मुस्कान, आवाज़ में भारीपन और आत्मीयता को जो मैंने देखा, सुना लेकिन उसके मायने या उसका सही अर्थ अब समझ आया। रिश्तों की गर्माहट, लगाव, प्रेम अब समझ आता है। अपनों से दूर होने का दर्द अब महसूस होता है।
      काश मेरी दादी जी हमारे साथ होती तो वे भी अपने पड़ोसियों, सहेलियों को ढ़ूँढ़ने का प्रयास करती और उनके चेहरे पर खिली मुस्कान को काश मैं आज भी देख पाती।

Wednesday, August 10, 2011

चीन में मेरा अनुभव

जब हम अपने देश से बाहर जाकर विदेश में जा कर बसने का निर्णय लेते हैं तो जीवन में उथल-पुथल मच जाती है। यह उथल-पुथल न केवल हमारे अपने बल्कि पूरे परिवार में मच जाती है। जीवन का बहुत अहम फैसला होता है, अपने देश, जन्मभूमि, संस्कृति, परिवारजन, मित्र, काम-काज, घर-गली, मुहल्ला छोड़ कर कहीं और हमेशा के लिए जा बसने का सपना हर कोई संजोता है। जीवन में आगे बढ़ने के लिए, प्रगति करने के लिए, कुछ पाने के लिए, कुछ खोना पड़ता है। अपने घर- परिवार को कोई अपनी इच्छा से, तो कोई व्यवसाय के कारण, कोई स्थानांतरण के कारण, तो कोई मजबूरी में उन्हें पीछे छोड़ आगे बढ़ जाता है। ऐसे ही आँखों में सुन्दर, सफल भविष्य के सपने लिए हम भी अपने देश से निकलकर, अपने परिवार, रिश्तेदारों, मित्रों को छोड़कर भारी मन परन्तु उज्जवल भविष्य की तलाश में आगे बढ़ आए। हवाईअड्डे पर अपने माता-पिता, भाई-बहन, संगी-साथियों से आँखों में आँसू भरकर, सुबक-सुबक कर, भारी मन से विदा ली और विमान में जा बैठे। खुली आँखों से देखे सपने, दिल में ढे़रों उमंगे लिए, लाखों अरमान सजाकर पर साथ-साथ दिमाग के कोने में घबराहट और डर से भरे हुए विचारों के साथ हम विमान में जा बैठे। कई सवाल उमड़ रहे थे मन में पर जुबान खामोश थी। दिल चाह रहा था कि चल लौट चलें माँ के आँचल में, छुप जाएँ फिर से उनकी ममता की छाँव में, सोच रहे थे क्यों पंख निकल आए हमारे जो अपना नीड़ छोड़, माता-पिता को छोड़ स्वावलंबी बनने निकल पड़े। आज अपने बड़े हो जाने का जितना दुख महसूस कर रहे थे शायद पहले कभी नहीं किया होगा। दिल कह रहा था, कितने स्वार्थी हो तुम माता-पिता की पीर नहीं समझते, यह भी नहीं जानते कैसे रहेंगे वे तुम्हारे बिना। पर यह कहावत शायद हम जैसों के लिए ही बनी है- अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। खैर, भारत से विमान में पाँच-छः घंटे का सफर पूरा हुआ और मैं- नव-विवाहिता अपने पतिदेव के साथ पहुँची सिंगापुर की धरती पर। आप मेरा यह वाक्य शायद दुबारा पढ़ रहे हैं। जी हाँ, आपने सही पढ़ा मैं पहुँची सिंगापुर की धरती पर। विवाह के बाद मैं केवल अपने माता-पिता, अपने परिवार से ही दूर नहीं हुई थी बल्कि अपनी जन्मभूमि, अपने देश से भी दूर, विदेश चली गई थी। शायद यही कारण है, कि मैं उस समय बहुत भावुक हो गई थी। आप भी मेरे अब तक के लेख को पढ़कर मेरी उस समय की मनःस्थिति समझ गए होंगे। 

ईश्वर की असीम कृपा रही कि विदेश की धरती ने अपनी बाहें फैलाए हमारा स्वागत किया। न केवल स्वागत किया बल्कि हमें कब अपना बना लिया हमें इसका एहसास दस साल बाद हुआ। जब दस साल बाद एक बार फिर जीवन ने नये मोड़ लेने का फैसला किया और वक्त ने हमें चीन आने का मौका दिया। एक बार फिर से अपनी जड़ से उखड़ कर नई जगह जाकर नए सिरे से जीवन शुरू करना था। वहीं डर और हिचकिचाहट भरे सवालों ने दिल-दिमाग के बीच जंग छेड़ दी थी। खैर, खुद को खुश करने के लिए कह सकते हैं कि हम बहुत बहादुर हैं। दस साल बाद अपना सारा सामान बाँध कर उन मित्रों से, उन रिश्तों से जिन्होंने हमें विदेश में अपनों की कमी का कभी एहसास नहीं होने दिया। उनसे विदा लेकर दो साल पहले हम चीन में पेइचिंग पहुँचे। चीन के बारे में बहुत कुछ सुनते रहते थे, समाचार-पत्रों में, पत्रिकाओं में पढ़ते रहते थे। चीन की तीव्र गति से होने वाली प्रगति को देख आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वर्ष 2008 में आयोजित ओलम्पिक खेलों के बाद चीन विश्व के मानचित्र पर उभर कर आया है और लोगों को अपना सुनहरा भविष्य दिख रहा है। हम भी उज्जवल भविष्य की तलाश में आ पहुँचे चीन की धरती पर।    हवाईअड्डे पर पहुँचते ही जितना चीन के बारे में सुना था उस से कई गुना अधिक ही पाया। हवाईअड्डे से होटल तक पहुँचने में हमें लगभग 35-40 मिनट तक का समय लगा और रास्ते में जहाँ-जहाँ नज़र जा रही थी वहाँ-वहाँ देखकर सुनी और पढ़ी बातों को मानो जैसे प्रमाण-पत्र मिल गया हो। जहाँ देखो वहाँ हरियाली, साफ-सुथरी और चौड़ी सड़कें, सड़कों के किनारों पर लाल-लाल गुलाब खिले हुए थे, गगनचुम्बी इमारतें, सड़कों पर केवल महँगी-महँगी गाड़ियों को देखकर अंदाज़ लगाया जा सकता है कि यहाँ के लोग संपन्न व समृद्ध हैं। यह था पहला-पहला अनुभव और कहते हैं न- फ्रस्ट इमप्रेशन इस द लास्ट इमप्रेशन। तो भई, होटल तक पहुँचते- पहुँचते यह पूरा विश्वास हो गया था कि चीन का नाम अब बहु-चर्चित विकसित देशों में क्यों लिया जाता है। शानदार से होटल में हमारा शानदार स्वागत किया गया। अब मुझे लगने लगा था कि यहाँ जीवन बहुत रोमांचक और मज़ेदार होने वाला है। अब मुझे लगने लगा था कि यहाँ जीवन बहुत रोमांचक और मज़ेदार होने वाला है। जिनसे भी यहाँ के जीवन के बारे में कोई भी सवाल पूछती तो सब एक ही बात कहते कि यहाँ आपको इतना मज़ा आएगा कि आप सिंगापुर को जल्द ही भूल जाएँगी। इतनी बार इस वाक्य को सुनकर मन को सुकून-सा मिलता और अंतर्मन से आवाज़ आती कि सही फैसला लिया है हमने। एक महीने  होटल में समय कैसे बीत गया पता ही नहीं चला। दस साल के लंबे अंतराल के बाद मैं नौकरी छोड़कर आराम से जीवन बीता रही थी। कुछ काम करने के लिए नहीं होता था इसलिए मैं या तो सोती रहती या फिर किताबें पढ़ती रहती थी। इस एक महीने में हम ने अपने लिए आवास ढ़ूढा, थोड़ी बहुत पेइचिंग की सैर भी की और यह समझ में आने लगा कि चीनी भाषा सीखना अनिवार्य है।
एक महीने के बाद हम ने अपने लिए बेइंतहा सुन्दर-सा घर किराए पर लिया और नए घर में नए जीवन का श्री गणेश किया। अब तक सब कुछ ठीक-ठाक सही ढंग से चल रहा था। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि हम किसी नए देश में आकर रहने लगे थे। मैं अपने नए घर को सजाने-संवारने में जुट गई और ऐसी-ऐसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा कि आपको क्या बताऊँ। चलिए, मैं आपको शुरू से सब बताती हूँ। जब मैं कपड़े धोने के लिए वॉशिंग मशीन में कपड़े डालती तो समझ ही नहीं पाती थी कि यह चलेगी कैसे क्योंकि सारे बटनों पर निर्देश तो चीनी भाषा में लिखे होते हैं। कपड़े धुल जाए तो उनको सुखाने के लिए कौन-सा बटन दबाऊँ यह समझ नहीं आता था, कपड़े सूखने के बजाए फिर से धुलना शुरू हो जाते। इतना करके तो मैं थक गई और कमरे में सोफा पर आकर एयर कंडिशन(वातानुकूल) का रिमोट लेकर उसे चलाने लगी तो पाया जीवन काँटों की राह पर चलने का नाम है। जी, यहाँ भी सारे बटनों पर निर्देश तो चीनी भाषा में ही लिखे हुए थे। जब टी.वी देखने का मन किया तो यह भी सरल नहीं था। मैं टी.वी देखने के स्थान पर रिमोट के साथ कई घंटे खेलती रही क्योंकि आवाज़ कम करूँ तो चैनल बदल जाता और जब चैनल बदलना चाहूँ तो आवाज़ बढ़ जाती। मानव स्वभाव होता है बड़ी-बड़ी चीज़ों के साथ आसानी से समझौता किया जा सकता है पर छोटी-छोटी चीज़ों के साथ समझौता करने में उसे परेशानी होती है। मुझे ऐसे लगने लगा मानो आकाश में स्वछंद उड़ते हुए अचानक से किसी ने मेरे पंख काट दिए हो और मैं धम्म से ओंधे मुहँ ज़मीन पर आ गिरी। उन सब लोगों के ऊपर इतना गुस्सा आने लगा, जिन्होंने मुझ से कहा था कि यहाँ बहुत मज़ा आएगा। लगने लगा कि वे शायद कटाक्ष कर रहे थे। जहाँ भी जाऊँ चाहे सब्ज़ी बाज़ार, फल की दुकान,टैक्सी या घर में काम करने वाली आई, कोई मेरी बात नहीं समझ रहा, मैं किसी की बात नहीं समझ पा रही क्योंकि सब चीनी भाषा में बात करते हैं और अंग्रेज़ी न बोल पाते न समझ पाते। इशारों में और थोड़ी अंग्रेज़ी में जैसे-तैसे कठिनाइयों भरा जीवन गुज़रने लगा। सारा दिन घर में बिजली के उपकरणों के साथ खेलना, इशारों में संवाद करना, कुछ दिनों बाद दिल मानो रूआसा होने लगा। मुझे धीरे-धीरे यह लगने लगा कि मैं यहाँ चीन में नहीं रह पाऊँगी। ईश्वर से मन-ही-मन प्रार्थना करने लगी कि मेरी मदद करो। फिर एक दिन किसी परिचित से मुलाकात हुई और वे मेरे चेहरे को देखते ही भाँप गई की अवश्य कोई गंभीर समस्या है। उनके थोड़ा ज़ोर देने पर मैंने अपने दिल की सारी व्यथाएँ उनसे कह डाली। उन्होंने मुझ से केवल एक सवाल पूछा, तुम्हें यहाँ सबसे ज़्यादा क्या खराब लगता है।    मैंने सहसा जवाब दिया कि कोई मेरी भाषा नहीं समझता, मैं चीनी भाषा नहीं समझ सकती। उन्होंने   कहा,  “बस, इतनी-सी बात को तुम अपने दिल पर बोझ लिए जी रही हो।
उनके एक वाक्य ने जैसे मुझे झंझोड़ कर रख दिया और मुझे आत्मग्लानि होने लगी कि मैं इतनी-सी बात को क्यों समझ न पाई। खैर, जब जागो तब सवेरा। मैंने अपना दृष्टिकोण बदला तो मेरा जीवन ही बदल गया। मैं अब आपसे न राजनैतिक, न कला, न संस्कृति, न आर्थिक, न व्यापारिक किसी भी विषय के बारे में नहीं बल्कि अपने निजी अनुभवों के बारे में बताऊँगी जिससे आप यह जान पाएँगे कि कैसे मैं यहाँ से हार मानकर चली जाना चाहती थी और कैसे मुझे इस शहर, इस देश से लगाव हो गया है। मेरी नफरत कैसे प्यार में बदल गई।
यहाँ की सबसे बड़ी खासियत या ताकत है—मददगार लोग। आप कहीं भी, कभी भी, किसी भी स्थिति में अगर किसी कठिनाई का सामना कर रहे होंगे। बस हाथ आगे बढ़ाने की देर है, कोई-न-कोई आकर आप का हाथ थाम लेगा और आपकी मदद करेगा। यहाँ लोगों में दया, करूणा और विन्रमता कूट-कूट कर भरी है। मैं प्रतिदिन ट्रेन में सफर करती हूँ और यदि कोई गर्भवती महिला, वृद्ध, छोटे बच्चे या मुझ जैसे विदेशी को देख कर लोग उठ-उठ कर अपनी सीट बैठने के लिए देते हैं। मैं यदि मना भी करूँ तो अंग्रेज़ी में कहने का प्रयास करते हैं – यू सिट डाऊन। चाहे कितनी भी भीड़ हो, लोग एक-दूसरे से सट कर खड़े हों, तब भी धक्का-मुक्की नहीं होती। सब स्टेशन पर कतार में खड़े होते हैं और आराम से चढ़ते और उतरते हैं। ऐसा बस- ट्रेन दोनों में होता है। राह चलते कभी रास्ता भटक जाएँ, किसी से मदद माँगने पर वे अपनी राह छोड़ हमें सही राह पर पहुँचा देते हैं। किसी चीनी मित्रजन के साथ खरीदारी करने निकलो तो वे मार्गदर्शक बन हमें सब स्थानों से अवगत कराएँगे तथा यह भी बताएँगे कि कहाँ से सामान वाजिब दाम में मिलेगा।  
    दूसरी सबसे बड़ी ताकत इस देश की है—परिश्रमी लोग। मैंने यहाँ किसी को कभी-भी अपने काम से जी-चुराते या काम के लिए आनाकानी करते हुए सुना तक नहीं है। चाहे सुबह के सात बजे से रात के दस बजे तक लगातार काम करने के बाद भी किसी के चेहरे पर शिकन तक नहीं आता और काम में कोई कमी नहीं होती।
तीसरी पर सबसे बड़ी महत्वपूर्ण विशेषता—लैंगिग असमानता का न होना। यहाँ पुरूषों और महिलाओं में केवल अंतर लिंग का है और कोई अंतर नहीं। महिलाएँ भी वे सारे काम करने में सक्षम हैं जिसे पुरूष करते हैं। यहाँ चीन में एक कहावत है- महिलाएँ भी पुरूषों की तरह आधा आसमान उठा सकती हैं।
एक और महत्वपूर्ण विशेषता—यह स्थान हर किसी के लिए सुरक्षित है। घर से बाहर किसी भी समय निकलने के लिए दिल में किसी प्रकार का कोई डर नहीं होता। हम यहाँ देर रात कहीं भी बेझिझक आ-जा सकते हैं। महिलाएँ भी ऐसा कर सकती हैं। हर इमारत में स्वचालित प्रविष्टि के पश्चात ही प्रवेश कर सकते हैं। जहाँ ऐसा होता है वहाँ आप बेहतर और सुकून से जीवन व्यतीत कर सकते हैं। कोई भी व्यक्ति ऐसे ही कहीं भी किसी भी इमारत में आ-जा नहीं सकता। सड़क हो या बाज़ार, गली हो या इमारत, बाग हो या दफ्तर हर जगह अनुशासन, नियम-कानून का ईमानदारी से पालन किया जाता है। सब कुछ सुव्यवस्थित रहता है सदा।
अब अगर मनोविनोद, मनोरंजन की बात करें तो यहाँ पेइचिंग में आप के पास करने को इतना कुछ है, घूमने-देखने के लिए इतनी सारी जगह हैं कि आप थक जाएँगे पर ये खत्म नहीं होंगी। खरीदारों के लिए तो यह जन्नत है। कपड़े, जूते, पर्स, बैग, गहने, मोबाइल फोन, इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स, कम्पयुटर, घड़ियाँ, घर की सजावट की चीज़ें, बर्तन, सौंदर्य प्रसाधन, चीनी मिट्टी से बनी तरह-तरह की चीज़ें, चंदेल, झाड़ फानूस, गलीचे आदि-आदि की इतनी बहुरुपता मौजूद है कि आप उसका अंदाज़ भी नहीं लगा सकते। तभी तो चीन आज सारी दुनिया को अपने यहाँ निर्मित वस्तुओं का उपभोग करवा रहा है। मैंने पिछले कुछ महीनों में इतनी खरीदारी कर ली है कि घर में सामान रखने की जगह नहीं है, पर इतनी सुन्दर चीज़ें देखकर जी ललचा जाता है।
मुझ जैसे भोजन-प्रेमियों को यहाँ संसार के हर कोने का भोजन खाने को मिलता है। वह भी बिल्कुल घर के जैसा इसलिए कोई कह ही नहीं सकता कि अपने घर या देश की कमी महसूस होती है यहाँ पर। हम जैसे विदेशियों के जीवन को और भी आसान बनाने के लिए यहाँ 4 से 5 अंग्रेज़ी साप्ताहिक, मासिक पत्रिकाएँ छपती हैं। जिनमें हर प्रकार की जानकारी उपलब्ध होती है, जैसे कि कब, कहाँ, कौन-से कार्यक्रम या गतिविधियाँ होने वाली हैं। कब, कहाँ, कौन-से होटल या रेस्तरॉ में प्रमोश्न या कोई विशेष कार्यक्रम की विस्तृत जानकारी भी उपलब्ध होती है। ये पत्रिकाएँ बिल्कुल मुफ्त मिलती हैं।
हर देश के सामुदायिक समूहों की विस्तृत जानकारी भी उपलब्ध होती है। जिन में भाग लेने पर आप अपने देशवासियों से मिल सकते हैं। ऐसा है चीन। इतना बड़ा देश है यह कि जैसे ही काम से 2 या 3 दिन का अवकाश मिलता है तो हम अलग-अलग शहरों में घूमने जाते हैं और यह पाते हैं कि एक ही देश में कितनी विविधता है। एक-सा होते हुए भी कितना अलग-सा है।
मेरी हमेशा से इच्छा रही थी कि मैं स्वीट्ज़रलैंड जाऊँ और वहाँ बर्फबारी का आनंद लूँ। ईश्वर ने मेरी यह इच्छा यहाँ पूरी कर दी। सर्दियों में यहाँ इतनी बर्फबारी हुई कि धरती को सफेद चादर में लिपटे हुए बस देखते ही बनता था। सिंगापुर में 10 साल केवल गर्मियों का मौसम देखने के बाद आँखें बाग-बाग हो गईं। मोटे-मोटे जैकेट, कोट, लंबे-लंबे जूते पहनने का सपना यहाँ पूरा हुआ।
मौसम के अनुसार मिलने वाले ताज़े फल, सब्ज़ियों का आनंद भारत के बाद यदि मिला तो यहाँ। ताज़ी हरी पत्तेदार सब्ज़ियाँ बाज़ार में देखते ही बनती हैं। गर्मियों में हम ने खूब चैरी,तरबूज़, खरबूज़ा, आम और लिचियाँ खाईं। सर्दियों में खूब लाल-लाल स्ट्राबैरियाँ खाईं और वो भी झाड़ियों से ताज़ी-ताज़ी तोड़ कर।
जी हाँ, मेरा एक और सपना पूरा हुआ इस देश में आकर। मैं हमेशा से चाहती थी कि मैं मीडिया संबंधित काम करूँ पर कभी ऐसा मौका नहीं मिला लेकिन यहाँ मेरा यह सपना भी पूरा हो सका। हिन्दी अध्यापन की सेवा में इतने वर्ष बिताने के बाद यहाँ आकर ऐसा लगा कि अब उसे विरामचिह्न लग जाएगा पर मैं कितनी गलत थी। अपने सहकर्मियों को शुद्ध हिन्दी बोलते देख दिल बाग-बाग हो जाता है। वह भी तब जब मुझे लगने लगा था कि भाषा मेरे जीवन में कितना बड़ा गतिरोधक बन गया था। उन्हें हिन्दी बोलते देख मुझे भी प्रेरणा मिलती है कि मैं भी चीनी भाषा सीख सकती हूँ और मैंने इसका अभ्यास शुरू भी कर दिया है।
कला-संस्कृति संपन्न देश-- इसकी झलक हमें घरों से लेकर, बाज़ारों में, लोगों की वेश-भूषा से लेकर इमारतों में हर पग-पग पर दिखती है। ऐतिहासिक इमारतें जैसे ग्रेट वॉल ऑफ चाइना, फॉरबिडन सिटी, थिएनमन स्कवैर, समर पैलेस, टैंपल ऑफ हैवन और भी बहुत सारी ऐसी इमारतें जिसे देख मैं अमर कथाओं की दुनिया में खो जाती हूँ।
अब दो साल के बाद जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूँ तो खुद पर हँसी आती है कि इस सोने की धरती पर जहाँ कदम-कदम पर प्रगति के स्वर्ण अवसर बाँहें फैलाए खड़े है, मैं वहाँ से हारकर चली जाना चाहती थी। इतना कुछ पाया यहाँ केवल दो साल में, असली जीवन कैसे जिया जाता है, यह सीखा यहाँ आकर, घर की याद न सताती अब, बस भाषा में हूँ कच्ची अभी पर जल्द सीख लूँगी उसे भी। फिर कभी मौका मिला तो अपने अनुभव बताऊँगी चीनी भाषा में आपको। यह थी मेरी कहानी, मेरी ज़ुबानी अब तक। एक आम इंसान के आम अनुभव इस महान देश में जिसने हम जैसे कई आम विदेशियों को अपनी बाँहों में लेकर प्यार से गले लगाकर कब अपना बना लिया पता ही नहीं चला। सारे सपने पूरे हुए यहाँ आकर।
आप सोच रहे होंगे कि शायद मैंने चीनी पर्यटन विभाग में काम करना शुरू कर दिया है, लेकिन ऐसा नहीं है। सब नज़रिए का कमाल है, आज कुछ अच्छा लगा तो लिख डाला आपसे बाँटने के लिए कल शायद कुछ और................................................................   
एक प्रयास अपने दिल की बात बताने का। कहते हैं दिल की बात दूसरों के साथ बाँटनी चाहिए। दिल से इच्छा थी, वह लिखने का मौका मिले जिसे दिल लिखना चाहता है। तो एक कोशिश दिल से आपको वह बताने की, कि मेरी नज़र में कैसी है ये दुनिया, मेरी नज़र से।