Friday, October 26, 2012

आप को न भूल पाएँगे हम- सुनील गंगोपाध्याय जी


प्रख्यात साहित्यकार और साहित्य अकादमी के अध्यक्ष सुनील गंगोपाध्याय जी का 23 अक्टूबर 2012 को दिल का दौरा पड़ने से दक्षिण कोलकाताClick here to see more news from this city स्थित उनके आवास पर निधन हो गया। वे 78 वर्ष के थे। बहुत दुख होता है जब कोई आपके बीच से अचानक चला जाता है।
पिछले साल यहाँ बीजिंग में मुझे उनसे मिलने का मौका मिला। रविन्द्रनाथ टैगोर जी की 150 वीं जयंती के आयोजन के दौरान सुनील गंगोपाध्याय जी के साथ विभिन्न भारतीय भाषाओं के जाने-माने लेखक और लेखिका यहाँ बीजिंग में 3 दिवसीय चीन दौरे के लिए आए थे। सुनील गंगोपाध्याय जी बंगाली गद्य के बेहतरीन लेखकों में से एक जाने-माने लेखक, जिनकी गिनती सर्वश्रेष्ठ समकालीन कवियों में की जाती है। 200 पुस्तकों को लिखने वाले सुनील जी एक विपुल लेखक थे जिन्होंने अलग-अलग शैलियों में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया, लेकिन कविता को अपना "पहला प्यार 'मानते थे। कविता गद्य में सुनील जी अपनी अनोखी शैली के लिए माने जाते हैं। उन्होंने लघु कथा, उपन्यास, यात्रा वृतांत और बच्चों के लिए कथा लिखकर भी अमूल्य योगदान दिया। Listen
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अपने आप में लेज़ेंड जाने जाते। आज की युवा पीढ़ी, उभरते लेखकों और कवियों के आइडल, प्रेरणा सोत्र जाने जाते हैं। उनकी द्वारा लिखे गए दो उपन्यास अरण्य दिन-रात्रि और प्रतिध्वनि पर सत्यजीत रेय द्वारा फिल्में भी बनाईं गई। सरस्वती सम्मान, आनंद पुरस्कार और साहित्य अकादमी अवार्ड से इन्हें सम्मानित भी किया गया। वे नील उपाध्याय के अलावा अन्य नामों से भी लिखते। कवि, लेखक, उपन्यासकार सुनील जी से मिलने का और उनसे साक्षात्कार करने का सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ। जब मैं उनके पास गई और कहा कि आपसे कुछ बातें करना चाहती हूँ तो मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा- इट्स मॉय हॉनरमैंने उन्हें अपना परिचय दिया और पूछा कि क्या हम हिन्दी में बात कर सकते हैंतो वे फिर मुस्कुराए और सरलता से कहा- हम तो हिन्दी में बात कर सकता नहीं, आमार भाषा तो बांग्ला है पर हिन्दी तो हम सब का भाषा है। मैं पूरा कोशिश करेगा। अगर अच्छा नहीं तो आप मुझे बोलना। बातचीत के दौरान उनके सरल व्यवहार से मैं बहुत प्रभावित हुई। उनकी बातों से साफ जाहिर था कि वे बहुत ही जिंदादिल और दिल की बात साफ-साफ कहने वालों में से थे। जब मैंने उनसे पूछा कि, क्यों आप कविता को अपना पहला प्यार मानते हैं?” पहले मुस्कुराए और कहा कि मैं एक लड़की से बहुत प्यार करता था, उसके लिए मैं कविताएँ लिखता लेकिन उसकी शादी किसी और के साथ हो गई लेकिन मैं कविताएँ लिखता रहा उसकी याद में। विदेश से पढ़ाई कर भारत वापस आने का उद्देश्य केवल लेखन था। इस पर जब बात की तो कहा कि मेरी माँ बहुत खुश होती थीं जब मनीआर्डर से मेरे लिखे गए लेखों के पैसे आते थे। उन्होंने बताया कि उनकी माँ सबसे कहती कि सब लोगों को सुबह से शाम 10 से 5 काम करना पड़ता है तब जाकर वेतन मिलता है। मेरा बेटा तो घर में बैठकर लिखता है और कमाता है। जब उनसे साहित्य अकादमी के अध्यक्ष होने के विषय में पूछा तो उन्होंने आशा जताई कि भविष्य में अनेक भारतीय भाषाओं की पुस्तकों का अनुवाद चीनी भाषा में तथा चीनी भाषा की पुस्तकों का अनुवाद विभिन्न भारतीय भाषाओं में हो सके ताकि पुस्तकों, उपन्यासों के जरिए एक दूसरे के साहित्य, संस्कृति तथा लोगों की समझ को बेहतरीन तरीके से समझा जा सके और दूरियों को कम किया जाए। बातचीत के दौरान ये कहीं महसूस नहीं हुआ कि वे हिन्दी भाषी नहीं। सुनील गंगोपाध्याय जी जैसे लोगों के साथ समय बिता जीवन को नई दिशा मिलती है। उस दिन उनके साथ बिताए तीस मिनट मेरे जीवन के सबसे यादगार पल बन गए और जब अचानक ये शोक समाचार मिला तो पुरानी यादें फिर ताज़ा हो गईं। उस दिन उनकी बांग्ला भाषा में कही आखिरी पक्तियाँ मुझे याद आ रही है-आमार भालो भाषा कोनो जन्म होय ना मृत्यु होय ना, केनो ना आमी उन्नो रोकोम भूलेर गोए ना, शोरिरे निए जन्मो छिए नाम। आमार किए नाम राखे नी,तीन ते छाठे छोदो नामे, आमार भ्रोमोण मोर्ते धामे। आपको कभी भूला न पाएँगे- सुनील दा!!

Thursday, October 18, 2012

कैसे कहूँ- आइ लव माय इंडिया?

हर रोज़ समाचार-पत्रों में घोटालों, घटनाओं, दुर्घटनाओं के साथ-साथ एक खबर अब आम हो गई है- फलां-फलां शहर या गाँव में लड़की का रेप, गैंगरेप और हम जिस मिट्टी के बने हैं उसकी परत इतनी मोटी हो गई है कि जल्द ही हमें कुछ भी सहने की, झेलने की अजब-सी सहनशक्ति विकसित हो गई है। उसके साथ-साथ स्मरण-शक्ति कमज़ोर क्योंकि रोज़ इतनी सारी दुर्घटनाएँ होती हैं और जब तक हमारे और हमारे अपनों के साथ सब ठीक चल रहा है तब तक क्या फर्क पड़ता है और हम अकेले कर क्या सकते हैं। हम में से बहुत सारे लोगों के पास बेहतरीन उपाय भी हैं कि ऐसे लोगों के साथ क्या किया जाना चाहिए ? मसलन, ऐसे लोगों को तो फांसी लगा देनी चाहिए, सड़क के बीच खड़ाकर गोली मार देनी चाहिए, कोड़े लगाने चाहिए और भी बहुत सारे तरीके हैं इन्हें सज़ा देने के। फिर भई यह तो सरकार का काम है, सख्त कानून बनाए बलात्कार जैसे घिनौने अपराध के लिए। मीडिया की मेहरबानी से अगर किसी रेप केस की जाँच के लिए हल्ला मचाया जाता है तो कोई हाई-प्रोफाइल पर्सनेलिटी, नेता या नेत्री जी किसी छोटे से गाँव या कस्बे में हाल-चाल जानने और झूठे वादे करने पहुँच जाएँगे और टी.वी चैनल वालों को 2-3 दिन चौबीसों घंटे का मसाला मिल जाएगा। जी हाँ, जितना पढ़ने में बुरा लगा उतना मुझे लिखने में भी बुरा लगा। दुनिया की आधी आबादी का एक हिस्सा में भी हूँ।
बलात्कार शब्द किसी को भी अंदर से झंझोड़ कर रख देता है तो इनकी शिकार मासूम लड़कियों और महिलाओं की दशा, उनकी पीड़ा, उनके दर्द, उनकी चित्कार को समझने का सामर्थ्य हम में से किसी के पास नहीं। बीमारी का इलाज ढ़ूँढ़ने में हम अब भी विश्वास नहीं रखते लेकिन बीमारी के कारण,बहाने ढ़ूँढ़ने में हम पोथे-के पोथे भर डालेंगे। हैरानी, नहीं ये बहुत छोटा शब्द है- शर्मनाक कहना ठीक है। जब यह कहा जाने लगा कि लड़कियों की शादी की उम्र 18 से घटाकर 15 कर दो फिर भविष्य में किसी अबला का बलात्कार नहीं होगा। मुगलों के राज में जैसा हुआ करता था वही अब भी करना शुरू कर दो। जैसे वे अपनी बेटियों को पर्दे में रखते थे वैसे अब आप सब भी शुरू कर दो। 15 साल की उम्र में अपनी बेटियों की शादी कर अपने हाथों से कन्या दान के साथ-साथ उसके बलात्कार का प्रमाणपत्र भी आप ही दे दो क्योंकि 15 साल की कोई भी लड़की अपनी मर्जी से तो शादी करेगी नहीं। इन सबसे रेप रुकेगा नहीं बल्कि रेपिस्टों को और बढा़वा मिलेगा। एक और बात आजकल बड़ा गला फाड़-फाड़ कर कही जाती है, लड़कियों के छोटे-छोटे कपड़े, अश्लील कपड़े जिम्मेदार है इन कुकर्मों के।
मुझे एक दशक से ज़्यादा समय हो गया अपने वतन से दूर रहते हुए मगर इसकी मिट्टी से खुद को हमेशा जुड़ा ही पाया है इसलिए मार्डन इंडिया, डिवेलपिंग इंडिया, अतुल्य भारत की अभूतपूर्व उपलब्धियों को देख, सुन, पढ़, खुद को इसका हिस्सा समझती हूँ। लेकिन जब इसी मार्डन इंडिया, डिवेलपिंग इंडिया की पिछड़ी सोच, 21वीं शताब्दी में मध्यकालीन मानसिकता के बारे में सुन सिर शर्म से झुक जाता है। दुनिया की आधी आबादी को हमारे यहाँ अपनी मर्जी से कपड़े पहनने की भी आजा़दी नहीं और अभी हाल ही में हमने मनाया आज़ादी का 65वां साल। यदि ऐसी बातें कहने वाले यहाँ चीन में आकर देखे तो शायद बेहोश होकर ऐसे गिरेंगे कि उठने की कभी उम्मीद ही नहीं कर सकते। अगर यहाँ की लड़कियों के कपड़ों को देखा जाए तो हमारे देश में शायद यह कहा जाएगा कि लड़कियों को पैदा करना कानूनन जुर्म होगा और अगर बात कपड़ों की करें तो क्या साड़ी या सलवार-कमीज़ पहनने वाली लड़कियाँ इस घिनौने अपराध का शिकार नहीं हुईं ? एक बात और साड़ी को फैशन की दुनिया में सबसे सैक्सी परिधानों में गिना जाता है। फिर क्या कहना है उनका जो लड़कियों के कपड़ों पर सवाल खड़े करते हैं? पूरी तरह खुलापन है यहाँ चीन में और मेरा मानना है कि खुलेपन को अश्लील आप-हम जैसे लोग ही बनाते हैं। यह भी कहा जाता है कि आजकल की युवा पीढ़ी बहुत आज़ाद ख्यालों की है। उन्हें मान-सम्मान और मर्यादाओं का कोई ख्याल नहीं रहता। तो शराब यहाँ चीन में पानी से भी सस्ती है, महिलाएँ और पुरुष एक साथ पूरे परिवार के साथ पीते हैं लेकिन यहाँ लोग शराब पीकर सीमाएं नहीं लांघते। शराब यहाँ के लोग इतनी सुबह से पीना शुरू कर देते हैं जब हमारे देश में अधिकतर लोगों के यहाँ शायद आस्था चैनल चल रहा होता है। चीन की बसों और ट्रेनों में लोगों की इतनी ज्यादा भीड़ होती है कि एक-दूसरे से सट कर खड़े होना पड़ता है जिनमें महिलाएँ और पुरुष एक साथ यात्रा करते हैं लेकिन इतनी भीड़ में भी कोई किसी महिला के साथ दुर्व्यवहार करने की सोचता तक नहीं। खराब स्पर्श या बेड टच जैसी कोई हरकत नहीं होती यहाँ। ऐसा नहीं कि यहाँ महिलाएँ बिल्कुल भी जुर्म का शिकार नहीं होती लेकिन यहाँ दोषी को दंड मिलता है उसके शिकार को नहीं। लैंगिक समानता है यहाँ, जैन्डर डिसक्रिमिनेशन नहीं।
आज एक भारतीय होने के नाते मुझे ये कहते शायद बुरा नहीं लग रहा कि मैं यहाँ खुद को ज़्यादा सुरक्षित महसूस करती हूं। कहीं भी, कभी-भी अकेले आने-जाने में किसी प्रकार का डर या भय नहीं। ये विचार ही नहीं आता कि मैं अकेली कैसे जा सकती हूँ ?
फिर क्यों हैं हमारे देश में ऐसा? जरुरत है, समाज के मानसिक स्तर, पुरुषों के भीतर गहराई तक घर की हुई पुरुषवादी मानसिकता और महिलाओं को मात्र फिजिकल सैटिस्फेक्शन का इंस्ट्रूमेंट समझने की सोच को बदलने की। जिस समाज में महिलाओं को महज शारीरिक भूख शांत करने और बच्चे पैदा करने की मशीन के तौर पर देखा जाता है, जहां उनके जज्बातों का उसकी इच्छा-अनिच्छा का जरा भी ख्याल नहीं होता, सब कुछ पुरुषवादी सोच और सुविधा के अनुसार तय किया जाता हो, वहां रेप जैसे अपराध महज शादी करवा देने से नहीं रुकेंगे। महिला-पुरुष संबधों को लेकर हमारे समाज का दकियानूसीपन भी काफी हद तक रेप जैसी वारदातों के लिए जिम्मेदार है। बदलाव की ज़रुरत है और उसे जल्द होना चाहिए। इसकी शुरुआत किसी और से नहीं बल्कि आप-हम जैसे लोगों से ही होगी वरना देश की प्रगति पिछड़ी हुई, दकियानूसी सोच वाले लोगों से कैसे होगी?  

Monday, September 24, 2012

फर्स्ट इम्प्रेशन


भारत से चीन घूमने आईं मेरी एक सहेली चीन को देखकर उसकी तारीफ करते हुए नहीं थक रहीं। क्या ऊँची-ऊँची बिल्डिंगस, लंबी-चौड़ी, साफ-सुथरी सड़कें, आलीशान मकान, रात को चमचमाती लाइटों से रोशन शहर। सड़कों पर सुंदर-सुंदर कपड़े पहने लोग। क्या अनुशासन मेंटेंन किया है, इस देश ने। यहाँ रहकर यह सभी बातें बड़ी आम-सी लगती हैं, क्योंकि ये सब तो हम रोज़ ही देख रहे हैं। लेकिन मेरी सहेली का एक वाक्य जो मेरे दिमाग मैं बार-बार घूम रहा था- सड़कों पर सुंदर-सुंदर कपड़े पहने लोग। जी, आपको भी अजीब लग रहा है न। क्या कोई उत्सव, त्योहार था जो सभी सजे-धजे सड़कों पर निकले। ना जी, ऐसा कुछ नहीं था, तो? सस्पैंस जैसी कोई बात नहीं। यहाँ सड़क पर, ट्रेन में, बस में, शॉपिंग मॉल में, किसी भी पब्लिक प्लेस पर आपको सभी लोग संवरे बाल, साफ-सुथरे, इस्त्री किए कपड़ों में नज़र आते हैं। सभी आर्थिक संपन्न हो ऐसा तो नहीं है, इसलिए तो यहाँ सड़कों पर, ट्रेनों में या बसों में किसी को भी देखकर आप पहचान नहीं सकते कि ये कोई अधिकारी है या सफाई कर्मचारी। शायद यहीं कारण भी है कि यहाँ किसी काम को छोटा-बड़ा के ब्रैकेट में नहीं रखा जाता। हर काम को इज़्जत दी जाती है और हर काम करने वाले को भी। आबादी और अमीरी-गरीबी के आकड़े लेकर बैठे तो चीन-भारत एक-दूसरे के आगे-पीछे चलते हैं। तो फिर क्या अंतर है, ऊँची-ऊँची बिल्डिंगस, लंबी-चौड़ी सड़कें, आलीशान मकान तो भारत में भी हैं। ज़रूरत है, अपनी छवि को बनाए रखने की। अपने आप को मेंनटेन करने की, अब सवाल उठता है लोगों के पास पैसे नहीं मेंनटेन क्या खाक करेंगे। ऐसा नहीं की यहाँ गरीबी नहीं, यहाँ परेशानियाँ, दुःख-तकलीफ नहीं। उसके बावजूद यहाँ के लोगों को देखकर आपको इसका एहसास नहीं होता। बड़े-बुजुर्गों का कहना है- सूरत से ज्यादा सीरत मायने रखती है। सीरत देखो सूरत मत देखो। लेकिन क्या आपको नहीं लगता सीरत जानने के लिए सूरत से होकर गुजरना पड़ता है। प्रैसंटेशन बहुत मायने रखती है। और वैसे भी कहा जाता है न अगर आप खुद को बना-संवार कर रखते हैं तो आप खुद से प्यार करने लगते हैं आप में एक अलग तरह का आत्मविश्वास जागता है और इसे फील गुड फैक्टर कहते हैं। यू फील गुड यू थिंक गुड। अच्छा दिखोगे तो अच्छा सोचोगे। अच्छा सोचोगे तो अच्छा करोगे। देश उसके लोगों से बनता है और लोग देश की छवि बनाते हैं। आज चीन में आने वाले पर्यटक यहाँ के लोगों को देखकर समझते हैं कि यहाँ सब संपन्न हैं। ये उन्हें भले ही उनके साधारण, सस्ते लेकिन साफ-सुथरे, इस्त्री किए कपड़े देखकर उसका अंदाजा लगाते हैं। यहाँ चाहे घर में काम करने वाली आई हो या दफ्तर में, सड़क पर सफाई कर्मचारी या दफ्तर में काम करने वाले क्लर्क, सैकरेटरी या अधिकारी सब खुद को अप-टू-डेट रखते हैं। यह है फर्स्ट इम्प्रेशन की बात, लोगों का स्वभाव कैसा है..... ये सब बाद की बातें हैं। मैं चाहूँगी कि मेरी सहेली मेरा यह ब्लॉग पढ़े और वो जैसा बढ़िया फर्स्ट इम्प्रेशन चीन का लेकर गई है वैसा ही हमारे देश में आने वाले पर्यटक भारत का बढ़िया इम्प्रेशन लेकर अपने घर लौटे।
हेमा कृपलानी


Wednesday, September 19, 2012

आएँ बैंड बजाएँ- खुद का


आज मैं आपकी मुलाकात कराने जा रही हूँ- स्वयं अपने आप से। यह क्या कह रही हूँ मैं। जी हाँ, आज केवल खुद से मिलेंगे और खुद से बातें भी करेंगे। आप सोच रहे होंगे कि मेरे साथ आज कुछ गड़बड़ जरूर हैं। गर्मी के मौसम में अक्सर गर्मी सिर पर चढ़ जाती है। तो क्या वाकई मेरे साथ ऐसा ही हुआ है। जानने की कोशिश करते हैं।

कल शाम को दफ्तर से घर जाने के लिए मैं ट्रेन से यात्रा कर रही थी। करीब एक स्टेशन के बाद अखबार बेचती हुई एक महिला जल्दी-जल्दी कुछ बोलते हुए मेरे सामने अखबार हाथ में पकड़े आ खड़ी हुई। शायद आज की ताज़ा खबर क्या है यह बोलती जा रही थी और मैंने सिर ना में हिला दिया कि मुझे नहीं चाहिए और मन-ही-मन अफसोस में खुद से कह रही थी कि मुझे क्या अखबार बेचोगी मैं तो अनपढ़ हूँ। अनपढ़ हूँ। रुको हेमा, यह क्या कह रही हो खुद से।अनपढ़ हूँ। हाँ, सही तो कहा अनपढ़ ही तो हूँ, यहाँ चीन में चीनी भाषा के लिए तो मैं अनपढ़ ही हूँ। दिमाग में यह विचार घूम रहे थे और नज़र सामने वाली सीट पर बैठे एक बुजुर्ग अंकल पर पड़ी तो वे चीनी भाषा की कोई पत्रिका पढ़ रहे थे। उनके साथ बैठी एक लड़की ने अखबार बेचने वाली महिला से अखबार खरीदा और पढ़ने लगी। मेरे बगल में बैठा एक छोटा लड़का अपने मोबाइल पर कुछ पढ़ रहा था, शायद ई-बुक पढ़ रहा था। ट्रेन में खड़े कुछ लोग आपस में चीनी भाषा में बातें कर रहे थे। हममममममममम, लंबी-ठंडी आहें भरती मैं खुद को मन-ही-मन कोस रही थी। क्या फायदा मेरी पढ़ाई-लिखाई का, यहाँ तो सब बेकार है, किसी काम का नहीं। मैं किसी से बात नहीं कर सकती, कोई भी किताब, पत्रिका नहीं पढ़ सकती, लोगों की बातें केवल सुन सकती हो, समझ नहीं सकती। देखो, सामने बैठे बुजुर्ग अंकल भी पढ़ सकते हैं, बगल में बैठा एक छोटा लड़का भी पढ़ सकता है, अखबार बेचने वाली महिला भी पढ़-लिख-बोल सकती है। एक मैं ही इस पूरी ट्रेन में अनपढ़ हूँ। ऐसे और भी कई विचारों ने मेरे मन-मस्तिष्क को पूरी तरह अपने घेरे में ले लिया और साथ-साथ दिमाग में पिछले अनुभव भी मंडराने लगे कि, अरे हाँ, पिछले दिनों ही तो घर के पास एक पोस्टर पर आत्म-सुरक्षा संबंधी कुछ तस्वीरें लगी थीं पर मज़ाल है जो उनके नीचे लिखे वाक्यों के किसी एक भी शब्द को मैं समझ पाई हूँ। हो ही नहीं सकता, नामुमकिन बात है। तब भी केवल अठखेलियाँ खेल रही थी कि शायद तस्वीरों के नीचे ये लिखा है या शायद वो लिखा है। पूछूँ भी तो किस से, जो जवाब मिलेगा वो भी तो समझ आना चाहिए। तब भी अपने कौतूहल का गला घोंट सड़ते-कुड़ते खुद को दो-चार अपशब्द कह घर लौट गई थी। और भी कई अनुभव बारी-बारी मेरे दिलो-दिमाग को पूरी तरह विश्वास दिलाने कि मैं चीन में अनपढ़ हूँ टोकन लिए खड़े थे कि, भई तेरी बारी हो गई तो मैं जाऊं। बाइ गॉड, नकारात्मक विचारों के स्वीमिंग पूल में मैंने इतने गोते खाए, इतने गोते खाए की अपने आत्मविश्वास की धज्जियाँ उड़ा कर उन्हें तहस-नहस कर दिया। फिर चीनी भाषा आखिर सीखती क्यों नहीं है, बिल्कुल सही सोच रहे हैं आप, यही सवाल मैंने भी खुद से पूछा। रोज़मर्रा के जीवन में काम आने वाले शब्दों को सीख मैंने यह मान लिया मानो कोई किला फतह कर लिया है। उसके अलावा नए शब्दों का जितना रट्टा मारुँ, वक्त पर, ज़रुरत पड़ने पर वे याद ही नहीं आते। दिल को फुसलाने-बहलाने के लिए गालिब ख्याल अच्छा है। बहाने तो हज़ार होते हैं, खुद को बचाने के, खुद को खुद ही गुमराह करने के। खैर, मैं इस बारे में ज़्यादा नहीं सोचूँगी क्योंकि मैंने तो पक्का इरादा कर लिया था कि आज मैं सिर्फ अपने लिए खराब से खराब, बुरी से बुरी बातों के बारे में सोचूँगी और मैं इयरफोन लगा हिंदी गाने सुनने लगी तो शायद बैड लक ही खराब चल रहा था और गीत के बोल थे, दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना वहाँ नहीं रहना जहाँ नहीं चैना।अब तो बस मोहर लग गई कि मैं अनपढ़, नकारा, बेकार वगैरह वगैरह। इसी सड़ने-कूड़ने के नक्षत्र में अचानक मोबाइल की घंटी बजी और बुझी आवाज़ में हैलोकहा तो सामने से कुछ बौखलाई-सी आवाज़ आई। किसी परिचित का फोन था जिन्हें उस समय सलाह की आवश्यकता थी और उन्होंने कहना शुरु किया- हेमा इस समय तुम्हें डिस्टर्ब करने के लिए क्षमा चाहती हूँ। अब उनसे क्या कहूँ मैंने आज अपने आत्मविश्वास का बैंड बजाने का इरादा कर लिया है और आप क्या मुझे डिस्टर्ब करेंगी मैं खुद ही काफी हूँ, स्वयं को डिस्टर्ब करने के लिए। खैर, उन्होंने कहा कि जिस परिस्थिति में मैं हूँ उसमें तुम ही सलाह दे सकती हो। अगले 15-20 मिनट तक मैं उनसे बातें कर रही थी और उनकी मदद करने की कोशिश कर रही थी। बातें करते-करते और उससे पहले अपने आप में गुम मैं, कब मेरी यात्रा पूरी हो गई और मैं अपने स्टेशन पर पहुँच ट्रेन से निकल घर की तरफ बढ़ने लगी तो फिर दिमाग में विचारों का आना-जाना शुरू हो गया लेकिन-लेकिन इस बार कहानी में ट्विस्ट था अब मैं खुद को वही पुरानी हेमा महसूस करने लगी थी जो अनपढ़ तो बिल्कुल नहीं थी, थोड़ी समझदार जिस पर लोग भरोसा करते हैं, जिम्मेदार नागरिक और खुद की तारीफ करूँ तो एक अच्छी इंसान। घर पहुँचते-पहुँचते खुद ही खोया आत्मविश्वास वापस लौट आया। अपने बारे में अच्छी-अच्छी बातें याद आने लगी, ईश्वर द्वारा दिए गए अनमोल उपहार, इमारत की लिफ्ट की तरह ऊपर बढ़ते-बढ़ते यह एहसास दिला रहे थे कि सबके आशीर्वाद से सब ठीक-ठाक है। ये तुम्हारा मन-मस्तिष्क ही है जो गोते खा रहा है। घर में प्रवेश कर ऐसा लगा मानो नकारात्मकता को घर के बाहर जूते की तरह उतार मैं सकारात्मक विचारों के पास आ गई और अंत में यही एहसास हुआ कि ये सब दिमाग में चल रहे कैमिकल लोचे का ही कमाल है। जो चाहे तो सातवें आसमान पर बिठाए या तो पटक दलदल में फेंक दें। तो भई, इस पूरे वाकए से मैंने तो यही सीखा कि हम क्या दुश्मन या दुश्मनी की बातें करते हैं, ये हमसे जलता है या वह हमारे बारे में गलत सोचता है, हमें नापसंद करता है। ये सब हमारे अंदर दबे-छुपे विचार है जो बहरूपिया बन चोला बदल-बदल हमें अपने रंग में गिरगिट की भांति धोखा देने, वक्त बेवक्त चले आते हैं और किसी-न-किसी को अपने घेरे में ले लेती है। विचार ही हमें बनाते हैं और बिगाड़ते हैं। राजा को रंक और रंक को राजा बना देते हैं। तभी तो बड़े-बुजुर्ग कहते हैं इंसान अपने विचारों से जाना जाता है। जैसे इस बार मेरी बारी थी। धन्यवाद, उस परिचित का जिन्होंने सही वक्त पर मुझे फोन किया और मैं अपने ही बुने जाल में बुरी तरह फंसी उस फोन की मदद से बाहर आ गई। तो मैंने इस सत्य कथा से यही सीखा कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। गौतम बुद्ध ने भी कहा है- जो अपने ऊपर विजय प्राप्त करता है वही सबसे बड़ा विजयी हैं। इसलिए विचारों की सेहत का भी ध्यान रखें और उन्हें हमेशा स्वस्थ बनाए रखें क्योंकि विचार स्वस्थ तो हम भी स्वस्थ और सुखी। आज आपके साथ अपने विचार बाँटकर मुझे अच्छा लगा।

हेमा कृपलानी