आज मैं आपकी मुलाकात कराने जा रही हूँ- स्वयं अपने आप से।
यह क्या कह रही हूँ मैं। जी हाँ, आज केवल खुद से मिलेंगे और खुद से बातें भी
करेंगे। आप सोच रहे होंगे कि मेरे साथ आज कुछ गड़बड़ जरूर हैं। गर्मी के मौसम में
अक्सर गर्मी सिर पर चढ़ जाती है। तो क्या वाकई मेरे साथ ऐसा ही हुआ है। जानने की
कोशिश करते हैं।
कल शाम को दफ्तर से घर जाने के लिए मैं ट्रेन से यात्रा कर
रही थी। करीब एक स्टेशन के बाद अखबार बेचती हुई एक महिला जल्दी-जल्दी कुछ बोलते
हुए मेरे सामने अखबार हाथ में पकड़े आ खड़ी हुई। शायद आज की ताज़ा खबर क्या है यह
बोलती जा रही थी और मैंने सिर ना में हिला दिया कि मुझे नहीं चाहिए और मन-ही-मन
अफसोस में खुद से कह रही थी कि मुझे क्या अखबार बेचोगी मैं तो अनपढ़ हूँ। अनपढ़
हूँ। रुको हेमा, यह क्या कह रही हो खुद से।अनपढ़ हूँ। हाँ, सही तो कहा अनपढ़ ही तो
हूँ, यहाँ चीन में चीनी भाषा के लिए तो मैं अनपढ़ ही हूँ। दिमाग में यह विचार घूम
रहे थे और नज़र सामने वाली सीट पर बैठे एक बुजुर्ग अंकल पर पड़ी तो वे चीनी भाषा
की कोई पत्रिका पढ़ रहे थे। उनके साथ बैठी एक लड़की ने अखबार बेचने वाली महिला से
अखबार खरीदा और पढ़ने लगी। मेरे बगल में बैठा एक छोटा लड़का अपने मोबाइल पर कुछ
पढ़ रहा था, शायद ई-बुक पढ़ रहा था। ट्रेन में खड़े कुछ लोग आपस में चीनी भाषा में
बातें कर रहे थे। हममममममममम, लंबी-ठंडी आहें भरती मैं खुद को मन-ही-मन कोस रही
थी। क्या फायदा मेरी पढ़ाई-लिखाई का, यहाँ तो सब बेकार है, किसी काम का नहीं। मैं
किसी से बात नहीं कर सकती, कोई भी किताब, पत्रिका नहीं पढ़ सकती, लोगों की बातें
केवल सुन सकती हो, समझ नहीं सकती। देखो, सामने बैठे बुजुर्ग अंकल भी पढ़ सकते हैं,
बगल में बैठा एक छोटा लड़का भी पढ़ सकता है, अखबार बेचने वाली महिला भी
पढ़-लिख-बोल सकती है। एक मैं ही इस पूरी ट्रेन में अनपढ़ हूँ। ऐसे और भी कई
विचारों ने मेरे मन-मस्तिष्क को पूरी तरह अपने घेरे में ले लिया और साथ-साथ दिमाग
में पिछले अनुभव भी मंडराने लगे कि, अरे हाँ, पिछले दिनों ही तो घर के पास एक
पोस्टर पर आत्म-सुरक्षा संबंधी कुछ तस्वीरें लगी थीं पर मज़ाल है जो उनके नीचे
लिखे वाक्यों के किसी एक भी शब्द को मैं समझ पाई हूँ। हो ही नहीं सकता, नामुमकिन
बात है। तब भी केवल अठखेलियाँ खेल रही थी कि शायद तस्वीरों के नीचे ये लिखा है या
शायद वो लिखा है। पूछूँ भी तो किस से, जो जवाब मिलेगा वो भी तो समझ आना चाहिए। तब
भी अपने कौतूहल का गला घोंट सड़ते-कुड़ते खुद को दो-चार अपशब्द कह घर लौट गई थी।
और भी कई अनुभव बारी-बारी मेरे दिलो-दिमाग को पूरी तरह विश्वास दिलाने कि मैं चीन
में अनपढ़ हूँ टोकन लिए खड़े थे कि, भई तेरी बारी हो गई तो मैं जाऊं। बाइ गॉड,
नकारात्मक विचारों के स्वीमिंग पूल में मैंने इतने गोते खाए, इतने गोते खाए की
अपने आत्मविश्वास की धज्जियाँ उड़ा कर उन्हें तहस-नहस कर दिया। फिर चीनी भाषा आखिर
सीखती क्यों नहीं है, बिल्कुल सही सोच रहे हैं आप, यही सवाल मैंने भी खुद से पूछा।
रोज़मर्रा के जीवन में काम आने वाले शब्दों को सीख मैंने यह मान लिया मानो कोई
किला फतह कर लिया है। उसके अलावा नए शब्दों का जितना रट्टा मारुँ, वक्त पर, ज़रुरत
पड़ने पर वे याद ही नहीं आते। दिल को फुसलाने-बहलाने के लिए गालिब ख्याल अच्छा है।
बहाने तो हज़ार होते हैं, खुद को बचाने के, खुद को खुद ही गुमराह करने के। खैर,
मैं इस बारे में ज़्यादा नहीं सोचूँगी क्योंकि मैंने तो पक्का इरादा कर लिया था कि
आज मैं सिर्फ अपने लिए खराब से खराब, बुरी से बुरी बातों के बारे में सोचूँगी और
मैं इयरफोन लगा हिंदी गाने सुनने लगी तो शायद बैड लक ही खराब चल रहा था और गीत के
बोल थे, “दुखी मन मेरे
सुन मेरा कहना वहाँ नहीं रहना जहाँ नहीं चैना।”अब तो बस मोहर लग गई कि मैं अनपढ़, नकारा, बेकार वगैरह
वगैरह। इसी सड़ने-कूड़ने के नक्षत्र में अचानक मोबाइल की घंटी बजी और बुझी आवाज़
में “हैलो”कहा तो सामने से कुछ बौखलाई-सी आवाज़
आई। किसी परिचित का फोन था जिन्हें उस समय सलाह की आवश्यकता थी और उन्होंने कहना
शुरु किया- “हेमा इस समय
तुम्हें डिस्टर्ब करने के लिए क्षमा चाहती हूँ।” अब उनसे क्या कहूँ मैंने आज अपने आत्मविश्वास का बैंड
बजाने का इरादा कर लिया है और आप क्या मुझे डिस्टर्ब करेंगी मैं खुद ही काफी हूँ,
स्वयं को डिस्टर्ब करने के लिए। खैर, उन्होंने कहा कि जिस परिस्थिति में मैं हूँ
उसमें तुम ही सलाह दे सकती हो। अगले 15-20 मिनट तक मैं उनसे बातें कर रही थी और
उनकी मदद करने की कोशिश कर रही थी। बातें करते-करते और उससे पहले अपने आप में गुम
मैं, कब मेरी यात्रा पूरी हो गई और मैं अपने स्टेशन पर पहुँच ट्रेन से निकल घर की
तरफ बढ़ने लगी तो फिर दिमाग में विचारों का आना-जाना शुरू हो गया लेकिन-लेकिन इस
बार कहानी में ट्विस्ट था अब मैं खुद को वही पुरानी हेमा महसूस करने लगी थी जो
अनपढ़ तो बिल्कुल नहीं थी, थोड़ी समझदार जिस पर लोग भरोसा करते हैं, जिम्मेदार
नागरिक और खुद की तारीफ करूँ तो एक अच्छी इंसान। घर पहुँचते-पहुँचते खुद ही खोया
आत्मविश्वास वापस लौट आया। अपने बारे में अच्छी-अच्छी बातें याद आने लगी, ईश्वर
द्वारा दिए गए अनमोल उपहार, इमारत की लिफ्ट की तरह ऊपर बढ़ते-बढ़ते यह एहसास दिला
रहे थे कि सबके आशीर्वाद से सब ठीक-ठाक है। ये तुम्हारा मन-मस्तिष्क ही है जो गोते
खा रहा है। घर में प्रवेश कर ऐसा लगा मानो नकारात्मकता को घर के बाहर जूते की तरह उतार
मैं सकारात्मक विचारों के पास आ गई और अंत में यही एहसास हुआ कि ये सब दिमाग में
चल रहे कैमिकल लोचे का ही कमाल है। जो चाहे तो सातवें आसमान पर बिठाए या तो पटक
दलदल में फेंक दें। तो भई, इस पूरे वाकए से मैंने तो यही सीखा कि हम क्या दुश्मन
या दुश्मनी की बातें करते हैं, ये हमसे जलता है या वह हमारे बारे में गलत सोचता
है, हमें नापसंद करता है। ये सब हमारे अंदर दबे-छुपे विचार है जो बहरूपिया बन चोला
बदल-बदल हमें अपने रंग में गिरगिट की भांति धोखा देने, वक्त बेवक्त चले आते हैं और
किसी-न-किसी को अपने घेरे में ले लेती है। विचार ही हमें बनाते हैं और बिगाड़ते
हैं। राजा को रंक और रंक को राजा बना देते हैं। तभी तो बड़े-बुजुर्ग कहते हैं इंसान
अपने विचारों से जाना जाता है। जैसे इस बार मेरी बारी थी। धन्यवाद, उस परिचित का
जिन्होंने सही वक्त पर मुझे फोन किया और मैं अपने ही बुने जाल में बुरी तरह फंसी
उस फोन की मदद से बाहर आ गई। तो मैंने इस सत्य कथा से यही सीखा कि मन चंगा तो
कठौती में गंगा। गौतम बुद्ध
ने भी कहा है- जो अपने ऊपर विजय प्राप्त करता है वही सबसे बड़ा विजयी हैं। इसलिए
विचारों की सेहत का भी ध्यान रखें और उन्हें हमेशा स्वस्थ बनाए रखें क्योंकि विचार
स्वस्थ तो हम भी स्वस्थ और सुखी। आज आपके साथ अपने विचार बाँटकर मुझे अच्छा लगा।
हेमा कृपलानी